आप ठीक सोच रहे हैं। लेख का शीर्षक थोड़ा अच्छा होना चाहिए। जैसे वह यह भी रखा
जा सकता था 'साहित्यिक अंतर्दृष्टियाँ : 2013-2017' - लेकिन गोया यह तो किसी
अंतरराष्ट्रीय साहित्यिक सम्मेलन का नाम प्रतीत होता है। ऐसे नामों का मुझसे
क्या लेना-देना, न तीन में न तेरह में! सो अपने वास्ते तो उपरोक्त शीर्षक ही
फिट है।
मेरी एक ओैर एकमात्र एक ही ख्वाहिश है, जीवन का एक ही लक्ष्य - मैं एक
इंटरव्यू दे डालूँ! परंतु दूर-दूर तक क्षितिज-विस्तार में कोई नहीं ऐसा जो
मेरा इंटरव्यू लेना चाहता हो। मेरी कुंडली में लिखा है कि मेरे जीवन में अब
तेरह वर्ष ही शेष रहे हैं। जाहिर है कमउम्र में आने वाली मौत गरिमामयी न होगी।
जहाँ तक जीवन की गरिमा की बात है तो वह खैर बी.पी.एल. के सूत जैसा है। सूत
नीचे गिराते जाओ गरिमा बढ़ते जाएगी। ऐसी निकृष्ट कुंडली होने के बावजूद मैं
पाँच हॉर्स-पॉवर का स्वास्थ्य रखती हूँ। आप पूछेंगे कि मैंने ऐसे कौन से
पराक्रम किए हैं कि लोग मेरा इंटरव्यू लें अथवा उसे पढ़ना चाहें? यह बात मैं
पहले ही साफ कर दूँ कि मैंने अपने जीवन में कभी कुछ भी विशेष नहीं किया। मैं
किसी भी अन्य आम आदमी की तरह ही हूँ जो इस देश तथा इसकी व्यवस्था में सूत उठा
कर कम, गिरा कर ज्यादा अपना काम निकालते हैं। साहित्य में मैंने एक हाथ में
जितनी उँगलियाँ होती हैं उससे भी कम साल बिताए हैं - यानी चार! जी, मैं अभी
घुटनों रेंग रही हूँ। इन चार वर्षों में मेरी दस कहानियाँ, तीन लेख प्रतिष्ठित
पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं, पाँच अनुवाद रिसर्च जर्नल के विशेषांक
में प्रकाशित हुए, एक उपन्यास का अनुवाद पिछले तीन साल से एक बहुत बड़े
प्रकाशक के यहाँ स्वीकृत पड़ा है। चूँकि प्रकाशक सबसे बड़ा है मेरा काम लाइन
में सबसे पीछे खड़ा है। मेरा इतना परिचय अधूरा ही नहीं बेईमान भी होगा यदि मैं
आपको यह न बताऊँ कि मैं खूब-खूब रिजेक्ट भी होते आई हूँ और होते रहूँगी।
इंटरव्यू देना मेरा ख्वाब नहीं, हवस है। - मैं टी.वी. पर बड़े-बड़े
साहित्यकारों व साहित्यबाजों के इंटरव्यू देखा करती हूँ, तब मेरी आँखें गोल हो
जाती हैं, मुँह खुला का खुला रह जाता है। खुले मुँह से अक्सर लार चू जाता है -
होंठों के किनारे से लार की एक तार नीचे की ओर जाती है, नन्हीं बूँद टपकती है,
तार एकबारगी जरा सा ऊपर उछल दुगुने वेग से नीचे बढ़ती है और समूची ही धरती पर
ढेर हो जाती है। पत्रिकाओं में महानुभावों के इंटरव्यू पढ़ते वक्त भी मेरा हाल
कमोबेश यही होता है। इन साहित्यिक हस्तियों का मुआमला भी नेताओं जैसा है। आप
इन्हें टी.वी. पर देखें चाहे तसवीरों में - यह पहरावे में अपनी भारतीयता के
प्रति आक्रामक रूप से सजग नजर आते हैं मानो उत्कृष्ट एंपोरियम के इश्तहार हों।
खालिस तसर, मूगा, पश्मीना...। अरे यहाँ हम आम भारतीय खालिस सूती भी नहीं पहन
पाते, उसमें भी 'ब्लेंड' है। भारतीयता का मतलब ही ब्लेंड है। नेताओं की मानिंद
ही यह प्रतिष्ठित साहित्यिक-जन मीठी बातें बोलते हैं - तब मेरा मन चित्कार
उठता है, "यह झूठ बोल रहा/रही है ...सफेद झूठ!" आप इनका इंटरव्यू लेते हैं, यह
साहित्य के नाम शानदार कसीदे पढ़ते हैं। जनाब यदि आप हिंदी के पाठक का
इंटरव्यू लेंगे तब वह भी खट्टा बोलेगा। आप हिंदी के लेखक का इंटरव्यू लेंगे,
मैं कहती हूँ उसे तेजाब से कम नहीं बोलना चाहिए! वरना वह सच्चा नहीं है। जो
आपके द्वारा उनसे पूछे गए सवालों के दिए जवाबों से ज्यादा मेहनत अपने बालों के
खिजाब पर करते हैं उन्हें आप सब साहित्य का प्रतिनिधि समझते हैं।
मैं इंटरव्यू देना चाहती हूँ। आप मुझसे पूछिए आप क्यों लिखती हैं? (यह सबसे
पूछा जाता है इसलिए मुझसे भी पूछा जाना चाहिए) मैं आपको जवाब में गणित का
प्रश्न दूँगी। आप 'कैल्क्युलेशन' नहीं, अपनी कल्पना का प्रयोग करें - कायनात
में आदि से लेकर अब तक, जितने प्राणी जंतु हुए + जितने निष्प्राण रहे + जितने
पत्ते डोले व पँखुरियाँ झरीं + जितने कण धूल उड़ी व बूँद पड़ी... इन सब को आपस
में जोड़ कर 'समय' के हर पल से गुणा कीजिए - तब आप जान पाएँगे कि कितनी संख्या
में यहाँ कहानियाँ घटित हुई जा रही हैं, बेनिशान! मैं उन्हें निशान देना चाहती
हूँ। अपने बूते भर चंद कहानियों को दर्ज करना चाहती हूँ।
आप पूछिए - आप हिंदी पत्रिकाओं में लिखती हैं तो क्या आप उन्हें खरीद कर पढ़ती
भी हैं?
मैं कहूँगी - नहीं।
आप - क्यों?
मैं - मैंने हिंदी साहित्य की पाँच से छह नामचीन पत्रिकाओं के सालाना अंशदान
(सब्सक्रिप्शन) खरीदे किंतु उन सभी को मिला कर कुल पाँच पत्रिका अंक भी मेरे
घर न पहुँचे। हिंदी के पत्रिका प्रकाशक नहीं चाहते लोग साहित्य पढ़ें। वे
सरकारी अनुदान पाते हैं और जनता का अंशदान हड़पते हैं। मेरे शहर में हिंदी की
पत्रिका नहीं आतीं। मैं या मेरे परिजन जब बाहर जाते हैं तब वे अन्य शहरों से
नई-पुरानी जो भी पत्रिका हाथ लगे खरीद लाते हैं। लेखकीय प्रति मुझे हमेशा मिली
है, मैं बहुत शुक्रगुजार हूँ। हाँ, एक बार मुझे अपनी लेखकीय प्रति से इतर चंद
प्रतियाँ मँगवानी पड़ी थीं डेढ़ सौ रुपये चेक के एवज में - उस पत्रिका को भी
सरकारी अनुदान प्राप्त था। उसके संपादक ने अपनी शर्मिंदगी जाहिर की थी कि वह
पत्रिका-मालकिन के सामने बेबस है। मेरी कहानी का मूल्य एक लेखकीय प्रति है,
ज्यादा प्रतियों का खर्च मैंने सहर्ष वहन किया। रुकिए! आप मुझ से यह प्रश्न
क्यों पूछ रहे हैं? बड़ी-बड़ी साहित्यिक हस्तियों से तो मैंने आपको ऐसे प्रश्न
करते कभी नहीं देखा? आप उनसे भी पूछिए तो जान पाइएगा विद्वान हस्तियाँ कभी भी
खरीद कर नहीं पढ़तीं - खरीदना वे अपनी तौहीन समझती हैं। पुस्तक-पत्रिकाएँ अपने
आप उन तक चल कर पहुँचती हैं। जो न पहुँचे तो वे प्रकाशक को फोन लगा, उसके
स्टाफ को डपट देते हैं और उनकी दिक्कत दूर कर दी जाती है। बस... मैंने भी
सोचा, मैं अपनी कहानियों का तकाजा करूँ कि अंशदान का? घोड़ा घास से दोस्ती करे
तो चरेगा क्या? और मैंने पत्रिकाओं के अंशदान खरीदने छोड़ दिए।
आप पूछिए - कहानियों का तकाजा? यह कैसा तकाजा होता है?
मैं कहूँगी - लो! कहानियाँ क्या अपने आप छप जाया करती हैं? तकाजे करने पड़ते
हैं जी, तकाजे! छपना दूर आपकी कहानी पढ़ी जाए इसके लिए इतने तकाजे करने पड़ते
हैं कि काबुलीवाला काबुल लौट जाए। ऐसी कुछ पत्रिकाएँ हैं जो संस्थागत हैं,
उनके पास संपादकीय मंडली व स्टाफ टीम है। वहाँ पढ़ने के अधिक तकाजे नहीं करने
पड़ते, तीन से चार महीने में आपकी रचना स्वीकृत अथवा अस्वीकृत है यह पूछने पर
वे बता देते हैं। वहीं कुछ पत्रिकाओं में संपादक ही सर्वेसर्वा है - वह स्वंय
प्रतिष्ठित साहित्यिक है और पत्रिका उन्हीं से प्रतिष्ठा पाती है। वह अचूक रूप
से विनम्र है। मुझे ऐसे संपादकों की एकलता से दिली सहानुभूति है। आप उन्हें छह
महीने तक तकाजा करते रहेंगे अपनी रचना की स्थिति जानने के लिए, सातवें महीने
वे आपसे कहेंगे आप अपनी कहानी दुबारा भेज दें, मिल नहीं रही - तब आपको समझ
आएगा कि आपकी कहानी तो पढ़ी ही नहीं गई? आप दुबारा कहानी भेजेंगे और पुनः शुरू
होगा आपके तकाजों का सिलसिला। चार-पाँच महीने और बीत जाएँगे तब आपको कुल साल
भर बाद बताया जाएगा कि आपकी रचना रिजेक्ट हो गई है। अधिक दुखी न हों क्योंकि
यदि वह स्वीकृत हो गई होती तो उतना ही या उससे लंबा वक्त भी लग जा सकता है
आपकी रचना को उस पत्रिका के किसी अंक में स्थान पाने के लिए। तब आपकी
मनःस्थिति दबंग फिल्म की नायिका जैसी होती है - "थप्पड़ से डर नहीं लगता साब,
प्यार से लगता है।" यानि अस्वीकृति से डर नहीं लगता साब, स्वीकृति से लगता है।
सावधान रहें! आपको हर पत्रिका कहेगी कि वह आपकी रचना की स्थिति की सूचना आपको
स्वयं देंगे लेकिन कसम है किसी भी पत्रिका ने कोई भी सूचना किसी भी माध्यम से
मुझे आज तक दी हो तो! - एक बार तो कमाल हो गया! मैंने एक कहानी एक
महत्वाकांक्षी पत्रिका को भेज दी। होते-होते चार महीने हुए, मैंने फोन लगाया।
उधर से जवाब आया - जी हम बहुत व्यस्त हैं, हमारे यहाँ बहुत समय लग जाएगा।
मैंने एक गरजु लेखक की तरह कहा - मुझे सिर्फ रचना की स्थिति से अवगत करा दें,
समय की कोई पाबंदी नहीं (हिंदी का असर मुझ पर भी है)। उन्होंने कहा - कहानी
दुबारा भेज दें, मिल नहीं रही। कहानी मैंने तत्क्षण दुबारा मेल कर दी। दो दिन
बाद मुझे संदेश मिला - उनके पत्रिका की सदस्यता शुल्क तालिका का। दिलचस्प बात
यह थी कि उसमें प्रति अंक मूल्य अथवा वार्षिक सदस्यता शुल्क नहीं दिए गए थे
बल्कि 'तीन वर्षीय - पाँच वर्षीय - आजीवन सदस्यता शुल्क' ही दर्शाए गए थे।
मैंने उन्हें प्रत्युत्तर संदेश में 'थंबस् अप' का निशान भेजा। उम्मीद है वे
अँग्रेजी में शुभकामनाएँ समझे होंगे। मैंने उन्हें हिंदी का ठेंगा भेजा -
"टेस्ट द थंडर!"
अब इस बिंदु पर आ कर यह जरूरी है कि आप मेरे प्रकाशित कार्य का जिक्र करें।
ऐसा करने से मुझे अच्छा महसूस होगा। झूठमूठ ही सही, आपको कुछ ऐसा कहना चाहिए -
हम आपकी किताब का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं। वह कब आएगी?
मैं (गला साफ करते हुए) - देखिए किताब का ऐसा है कि पहली आ जाए तो मैं साल दर
साल किताबों की झड़ी लगा दूँ। किंतु अपना मसला यह है कि अपनी 'पहली' फँसी हुई
है।
आप - वह क्यों?
मैं - देखिए कहानियों का अपने पास कोई टोटा नहीं। टोटा है तो प्रकाशक का! बड़े
प्रकाशक रिजेक्ट कर देंगे। जो यकायक न करें तो जितने बड़े वे हैं उतना पीछे
मुझे लाइन में खड़ा करेंगे ताकि मैं खुद समझ जाऊँ। अच्छे प्रकाशकों से मैं बात
करती हूँ तो वे कोई बात साफ बोलते नहीं - कभी कहानियाँ मँगाते हैं तो अगली ही
बार हमने काम लेना बंद कर दिया है या बैकलॉग हो गया है ऐसा बताते हैं।
सरगोशियाँ मेरे कानों में भी पड़ती रहती हैं। मैं खुद एक खासा खुफिया दस्ता
हूँ। मुझे अच्छी तरह मालूम है जितनी देर में किसी पत्रिका में भेजी मेरी एक
कहानी की स्थिति साफ नहीं हो पाती उतनी देर में कई कवि/लेखक अपनी तीन-तीन
किताबें प्रकाशित करवा लेते हैं। प्रतीत होता है तमाम प्रकाशक बकरियों की तरह
बाड़ तोड़ कर उनके घर पर चढ़े जाते हैं। एक दिन मेरी भी लॉटरी लगी, एक अच्छा
प्रकाशक खुले मैदान में उतरा। हमारी खुल कर चर्चा हुई कुछ इस तरह -
वे : ...ओह यह पहली ही किताब है?
(उनके लहजे ने मुझे भी मातमी बना दिया)
मैं : जी।
वे : मुश्किल है...
मैं : कोई तो पहली होगी? (चाहती मैं भी हूँ कि सीधे दूसरी लिखूँ)
वे : हाँ... लेकिन अब कहानियाँ-कविताएँ चलती नहीं।
मैंने उनसे पूछना चाहा क्या हमारे समय के साहित्य में सिर्फ
प्रॉफेसरों-आलोचकों के जुगाली किए लेख-मीमांसा-आलोचना ही रचे जाएँगे? क्या
तमाम रचनात्मकता यूनिवर्सिटियों की नौकर होगी - क्या वह ए.पी.आई. जोड़ती हुई
यू.जी.सी. से प्रमाणित होने की राह देखेगी? नो कहानी नो कविता? मैं चुप रही।
मैं उन्हें बिदकाना नहीं चाहती। मुझे उन्हें सुनना है।
मैं : मेरे पास कहानियाँ ही हैं।
वे : 'इन्वेस्ट' करना पड़ेगा।
मैं : कैसे?
वे : आप अपनी दो सौ किताबें खरीद लें। डेढ़ सौ हम रख लेंगे, यह बिकती नहीं।
देखिए... दो सौ में से डेढ़ सौ प्रतियाँ ऐसे भी आप मुफ्त बाँटना चाहेंगी अपने
मित्रों को। इतनी तो लग जाती है।
मुझे प्रकाशक पर तरस आया फिर हँसी भी आई। वह जानता नहीं मुझे। मेरे जैसे
स्वभाव वाली इनसान के 'डेढ़ सौ' मित्र हो सकते हैं भला? अहमक! कोई सुर्खरू दस
प्रति से एक भी ज्यादा फ्री निकलवा ले मुझ से तो मैं उसे मान जाऊँ!
मैं : कितना लगेगा?
वे : दो सौ प्रतियाँ।
मैं : पैसा कितना लगेगा?
वे : कितने पन्ने की किताब होगी?
मैं : सौ से डेढ़ सौ पन्नों के भीतर मान लें।
वे : १२८ पन्ने।
मैंने सोचा यह कैसा अंक है भला?
मैं : कितना लगेगा?
वे : छत्तीस हजार रुपये। १२८ पन्नों से अधिक जितने पन्ने बढ़ेंगे उसी हिसाब से
पैसे बढ़ते जाएँगे।
मैं : ठीक है। मैं आपसे फिर संपर्क करूँगी।
फोन रखते हुए मैं बेहद खुश हुई - "असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय..."
मैंने नए ज्ञान के प्रकाश में हिसाब जोड़ा। दो सौ प्रतियाँ मेरी, इन्हें न
गिना जाए क्योंकि यह मुझ से न बिक पाएँगी, न मैं किसी को मुफ्त दूँगी क्योंकि
मुफ्त की किताब कोई नहीं पढ़ता। इन्हें बाद कर दें। यानी बाजार में अपनी किताब
की डेढ़ सौ प्रतियाँ बिकवाने के लिए मुझे प्रकाशक को छत्तीस हजार रुपये देने
होंगे। वे एक किताब का मूल्य सौ रुपये रखेंगे तो दस प्रतिशत रॉयल्टी के हिसाब
से मैं अधिकतम डेढ़ हजार रुपये कमाऊँगी/ किताब मूल्य दो सौ रुपये रखेंगे तो
मेरी अधिकतम कमाई तीन हजार रुपये होगी - यह तब जब प्रकाशक एक-एक किताब बिकवा
दे जो वह कभी न कर पाएगा क्योंकि उसकी नीयत नहीं इसलिए कूवत भी नहीं। बताइए
असंभव रूप से अधिकतम तीन हजार रुपये कमाने के लिए मैं उस गरीबनवाज को छत्तीस
हजार रुपये दे दूँ? मैं मानती हूँ मेरी गणित कमजोर है लेकिन मेरी
'कन्सिस्टेन्सी' का लोहा आप भी मानेंगे। पूरे विद्यार्थी जीवन में मैंने गणित
में १०० में से ३६ अंक लाए हैं, न जरूरत से एक कम न एक ज्यादा! हर बार पास
हुई। खास बात यह कि प्रकाशक महोदय जिन्होंने कहानी-कविता के महत्व को सिरे से
खारिज किया तथा मेरे काम को पढ़ने की जिनमें कतई जिज्ञासा नहीं, वे एक
महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिका के सम्माननीय संपादक हैं - कहानी/कविता के
माई-बाप!
आप उद्गार प्रकट करेंगे - यह तो प्रकाशकों की नाइंसाफी है!
मैं : नहीं। यह लेखकों की मक्कारी है।
आप : वह कैसे?
मैं : क्या आपने कभी हिंदी के स्थापित व प्रतिष्ठित लेखक-साहित्यकार अथवा
सरकारी/गैर सरकारी साहित्यिक व सांस्कृतिक पदों पर आसीन हस्तियों को समकालीन
प्रकाशन नीति अथवा उसके अभाव के खिलाफ आवाज उठाते देखा-सुना है? क्या वास्तविक
माहौल प्रतिभा का संरक्षण करता है? सरदार खुशवंत सिंह अँग्रेजी के भारतीय लेखक
थे। धाकड़ लेखक थे। उन्होंने अपनी उम्र के आखिरी दशक में प्रकाशकों की तीक्ष्ण
निंदा की थी, देश के सर्वोच्च अँग्रेजी प्रकाशकों का खुलेआम नाम लेकर उन्होंने
लेखकों के शोषण का विरोध किया था जबकि उनकी नीतियों के दुष्प्रभाव से वे स्वयं
परे थे। खुशवंत सिंह के विरोध का क्या असर रहा यह मैं नहीं जानती लेकिन वे
न्याय के पक्ष में खड़े थे तथा उन्होंने नवांगतुकों को अपने कद का सहारा दिया
था। इधर हिंदी में कोई ऐसा दिखाई देता है आपको? खुशवंत सिंह नहीं रहे। ईश्वर
उनकी आत्मा को मनपसंद शराब और शांति दे। आप सुनिए, मैं अब आपको सुनाती हूँ
हिंदी वालों का किस्सा - यह कार्यक्रम मैंने टी.वी. के एक अग्रणी चैनल पर देखा
है। कार्यक्रम व उसमें भाग लेने वाले हर मेहमान का नाम-काम मुझे याद है। मैं
किसी को चिन्हित नहीं करूँगी, न नाम से न इशारे से। मेरा उद्देश्य व्यक्ति पर
चर्चा करना नहीं है। मैं सिर्फ विचार/कृत्य/समस्या को उजागर करना चाहती हूँ।
कार्यक्रम एक प्रतिष्ठित साहित्यिक पुरस्कार के उपलक्ष्य में था। कार्यक्रम
में एक आप जैसा ही इंटरव्यू लेने वाला था। पुरस्कार विजेता (स्थापित) - एक
बेहद प्रतिष्ठित वरिष्ठ साहित्यकार - एक यूनिवर्सिटी प्राध्यापक - एक वरिष्ठ
आलोचक मंच पर मेहमान थे। साक्षात्कार वार्तालाप चला। न जाने कैसे वह इंटरव्यू
लेने वाला इस सम्मानित मंडली से पूछ बैठा - प्रकाशक लेखकों से पैसे लेकर किताब
छापते हैं। आप क्या कहना चाहेंगे? यह प्रश्न सबसे था। वरिष्ठ ने मुस्कुरा कर
कहा - देखिए। सवाल मौलिकता का है। प्रकाशक डरते हैं कि यदि लेखक के कृति का
मजमून कहीं से उठाया हुआ हो तो? उनकी चिंता मौलिकता को लेकर है। इसलिए वे
चाहते हैं कि लेखक पैसे लगाए। पुरस्कार विजेता ने मुस्कुरा कर इस बात का
शब्दों में समर्थन किया। प्राध्यापक व आलोचक ने भी शब्दों में अपनी सहमति दी।
- क्या बताऊँ, मेरे मुँह में इतना लार भर आया कि उठ कर थूकना पड़ा! माननीय जन,
चोरी की रचना या कृति को छापने पर लेखक के साथ प्रकाशक भी जिम्मेदार होगा ही
चाहे पैसा जिसने भी लगाया हो। और पैसा किसने कितना लगाया क्या किताब पर दर्ज
रहता है? और कितने ही काम बिना कानूनी कॉन्ट्रैक्ट कागज के होते हैं, ऐसे में
यह तथ्य कहीं दर्ज नहीं होते। सबकी मुस्कानों ने इस सवाल की हत्या कर दी। मैं
सवाल को जिलाना चाहती हूँ। मेरा इंटरव्यू कोई लेता नहीं, मैं इंटरव्यू देना
चाहती हूँ!
आप पूछिए : हिंदी भाषा के बारे में आप क्या कहेंगी?
मैं : हिंदी विश्व की सर्वाधिक विलक्षण भाषा है। आप इस भाषा को पढ़ने वालों पर
इसका प्रभाव देख सकते हैं - हिंदी पढ़ते ही पढ़ने वाला विश्व के तमाम विषयों
जैसे राजनीति, अर्थशास्त्र, वाणिज्य, कानून, समाज शास्त्र, अंतरराष्ट्रीय
संबंध व कानून, इतिहास, साहित्य, मानवाधिकार, इत्यादि का प्रमाणित विशेषज्ञ बन
जाता है। वह गणित-विज्ञान की टुच्चई से गरिमापूर्ण दूरी बनाए रखता है। वह
नैतिकता की मुँडेर पर जा बैठता है और टहूक-टहूक कर पथभ्रष्ट संसारियों की
आलोचना करता है, जिनसे वह सदा आहत रहता है। सदा आहत रहना भी एक कला है। हिंदी
बुद्धिजीवियों का एक और शगल है। वह है यूरोपीय व रूसी क्रांतियों तथा उनके
विचारकों में लिप्त रहना। उनकी आस्था क्रांतियों में है, सुधारों में नहीं। वे
शर्तिया उन क्रांतियों में शहीद हुए सर्वहारा की हिंदी में पुनर्जन्म प्राप्त
आत्माएँ हैं। तभी यह बुद्धिजीवी स्थान और काल से भटके-भटके रहते हैं। भला हो
'आधार' का जो बात-बात पर उन्हें उनकी नागरिकता याद दिला देता है। - चूँकि मैं
स्वयं प्रयासरत हिंदीजीवी हूँ मुझे भी अधिकार है कि मैं नैतिकता के मुँडेर पर
बैठ कर टहुकूँ। इसलिए आप मेरा इंटरव्यू लें - "टहूक-टहूक-टहूक...टू-टू-टू..."
मुझे रोकते हुए आप पूछिए : क्या आपको नहीं लगता कि इंटरव्यू देने लायक आपने
अपर्याप्त लिखा है?
मैं : आपने बिल्कुल सही फरमाया। मैंने बहुत कम लिखा है और मेरे भविष्य का कोई
ठिकाना नहीं। फिर भी मैं अभी और अभी ही इंटरव्यू देना चाहती हूँ। मुझे भय है
यदि इस मुकाम से मैं लौट गई तो खो जाऊँगी और यदि आगे बढ़ गई तब आप मेरा
इंटरव्यू लिया करेंगे और मैं गीत गाया करूँगी "जो तुमको हो पसंद वही बात
कहेंगे, तुम दिन को अगर रात..." साथ मेरी भी मुस्कानें हत्यारी हो उठेंगी।
क्योंकि मैं अपने अग्रजों से बेहतर साबित होऊँगी ऐसा मुझे मुगालता नहीं। मेरा
एक सच्चा इंटरव्यू देने का यही वक्त है, सही वक्त है!
आप : यह क्या! आपके नाखून इतने बड़े-बड़े! अरे-रे! यह तो बढ़ते ही जा रहे
हैं...?
मैं : जी। आपने कथा-साहित्य में इटली के लेखक कार्लो कॉलोडी के पात्र पिनोकियो
के बारे में अवश्य पढ़ा होगा। पिनोकियो जब-जब झूठ बोलता था उसकी नाक बढ़ जाया
करती थी। मैं जब-जब सच बोलती हूँ मेरे नख बढ़ने लगते हैं। कभी मन लगाने के
वास्ते कलम की जगह दवात में नख डुबो कर लिख भी लिया करती हुँ। जिस तरह इटली
में झूठ बोलने वाले की शिनाख्त होती है उसी तरह हिंदुस्तान में सच बोलने वाले
की शिनाख्त होती है।
आप : क्या चलते-चलते आप कुछ कहना चाहेंगी?
मैं : एक बात मैं बताना भूल गई। मेरी कुंडली में यह भी लिखा है कि यदि मुझे
तेरह वर्ष बाद मौत न आई, 'शुभ ग्रह रहे तो यदा भवति तदा जीवति।'